| उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
बिन्दू के विषय में पुरोहित की घोषणा होती ही नहीं थी। बड़ौज विवाह की इच्छा करने लगा था और उसको पत्नी के रूप में बिन्दू उपयुक्त प्रतीत हुई थी। बस्ती के पास स्नान करती हुई बिन्दू को देखकर ही उसकी इच्छा विवाह करने की हुई थी और उसने बिन्दू को अपने मन की बात बताई तो बिन्दू ने कहा, ‘‘चौधरी से कहो कि मेरे माता-पिता से बात करे।’’
यह बात जब बड़ौज ने चौधरी से कही तो उसने बताया कि जब तक साधु उसको युवती घोषित नहीं करता, कोई उससे विवाह की इच्छा नहीं कर सकता। 
बड़ौज धैर्य से इस घोषणा की प्रतीक्षा कर रहा था। बिन्दू से छोटी आयु की लड़कियों के विषय में घोषणा हो चुकी थी, परन्तु न जाने बिन्दू पर पुरोहित की दृष्टि क्यों नहीं गई कि उसके विषय में वह कुछ कहता ही नहीं था।
बड़ौज और बिन्दू मिलते-जुलते थे, परन्तु कबीले के नियम से बँधे हुए अपने मन की बात किसी से कह नहीं सकते थे। इस प्रतीक्षा में तीन वर्ष व्यतीत हो गए। लड़की की छाती का उभार और अन्य यौवन के लक्षण तो अब सब कबीले वालों को दिखाई देने लगे थे और इस विषय में पुरोहित का मौन सबके लिए विस्मय का कारण बन रहा था।
कबीले के लोग अपनी खालें और दूसरी वन की उपज बेचने तथा कपड़ा इत्यादि आवश्यक पदार्थ क्रय करने के लिए नगरों में जाते थे। इसके लिए दस-बीस-तीस कोस की यात्रा करनी पड़ती थी। 
			
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