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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


इस विचार का निष्कर्ष था कि अपनी पत्नी के विषय में उसका सन्देह गलत भी हो सकता है। यदि वह बदकार नहीं तो उसने उसे पीटकर अच्छा नहीं किया। यों तो कबीले में पति पत्नियों को पीटा करते थे और वहाँ इसको साधारण बात ही समझा जाता था, परन्तु उसने तो सोना को कभी पीटा नहीं था।

एक प्रकार के परस्पर विरोधी भावों में वह मन में निर्णय नहीं कर सका था कि ईसाई बस्ती में जाए अथवा नहीं। वहाँ सड़क के किनारे खड़े-खड़े उसको कुछ ऐसा प्रतीत होने लगा कि जनरल की कोठी का मुसलमान नौकर उसके सामने से दो-तीन बार आ-जा चुका है और उसके सम्मुख निकलते समय एक अर्थपूर्ण दृष्टि से उसकी ओर देखता भी था। उसको सन्देह होने लगा कि साहब की ओर से वह उसको देखने के लिए भेजा गया है, जिससे कि वह बता सके कि वह बस्ती की ओर गया अथवा नहीं। इस विचार के आते ही वह वहाँ से चल पड़ा।

कुछ दूर जाकर छावनी की हिन्दुस्तानी बस्ती की ओर चल पड़ा। वहाँ जाकर एक गली में घुस, वह पीछे मुड़कर देखने लगा कि वह मुसलमान उसका पीछा कर रहा है अथवा नहीं। उसको वह दिखाई नहीं दिया। इससे वह वहाँ से ईसाई बस्ती की ओर प्रस्थान कर जंगल में जाकर विचार करना चाहता था कि क्या करे। वह अभी चलना ही चाहता था कि किसी के पीछे से उसके कन्धे पर हाथ रख उसको खड़ा कर दिया। वह चौंक उठा और घूमकर हाथ रखने वाले की ओर देखने लगा। उसने पहचान लिया। यह लीमा का लड़का चीतू था। उसने कहा, ‘‘अरे चीतू! यहाँ क्या कर रहे हो?’’

‘‘बहिन से मिलने आया था।’’

‘‘मिली?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘कहाँ रहती है?’’

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