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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...

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अपने कपड़ों और नकदी को गठरी में बाँध धनिक कमांडिंग जनरल की कोठी से निकल गया। वह लुमडिंग की सड़क के तट पर खड़ा होकर विचार करने लगा कि किधर जाए। उसका चित्त ईसाई बस्ती में जाने के लिए नहीं कर रहा था। वह समझता था कि वहाँ जाकर वह अपनी पत्नी तक पहुँच भी नहीं सकेगा। उस पर अनिष्ठावान होने का बदला लेने की तो बात ही दूर रह जाएगी; साथ ही वह वहाँ किसी ऐसे काम पर लगा दिया जाएगा, जिससे एक-दो वर्ष में ही उसकी मृत्यु हो जाएगी।

उसके मन में अपनी बस्ती की ओर जाने का विचार उत्पन्न हुआ। वहाँ जाकर भी वह जीवित बच सकेगा क्या?–उसको इसकी आशा नहीं थी। उसका विचार था कि वहाँ साधु का सम्बन्धी सन्त पुरोहित होगा और वह साधु की हत्या का बदला लेने का यत्न करेगा।

इन दो स्थानों के अतिरिक्त अन्य कोई स्थान नहीं था, जहाँ उसके जाने की सम्भावना हो सकती थी। सबसे बड़ी बात सोना की थी। उसको विश्वास हो गया था कि उसकी पत्नी अनिष्ठावान है। इसका दण्ड उसकी हत्या के अतिरिक्त उसकी समझ में अन्य कुछ नहीं आता था।

जब वह कमांडिंग जनरल की कोठी में रहता था तो उसकी मित्रता कोठी के नौकर और कुछ हिन्दुस्तानी सिपाहियों से हो गई थी। उनकी बातों से वह कुछ इस प्रकार समझ पाया था कि सोफी भी अनिष्ठावान औरत है। इतना तो वह स्वयं देख चुका था कि सोफी युवक सिपाहियों के साथ बैठकर शराब पिया करती थी और घण्टों ही उसके साथ नाचा भी करती थी। फिर भी उसने प्रत्यक्ष कुछ नहीं देखा था। अपनी पत्नी के विषय में भी आँखों देखी बात तो वह कुछ नहीं जानता था। फिर भी उसका मन कहता था कि उसकी पत्नी बदकार हो गई है। उसके संगी-साथी सोना के विषय में संदेह प्रकट किया करते थे। वह मन में विचार करता था कि संगी-साथी तो साहब की बीबी के विषय में भी कहा करते हैं।

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