उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
श्रीपति उससे तख्त पर बैठ कुछ पूछना ही चाहता था कि खड़वे ने उसको बात करने का कोई अवसर न देते हुए कहा, ‘‘नलिनी कहाँ है? मैंने तो जब आप लोगों को वहाँ पर नहीं देखा तो सीधा यहाँ चला आया। मैं सोचता था कि कहीं मुझसे पूर्व आप यहाँ पहुँचकर परेशान न हो क्योंकि आपको मेरा यही पता विदित था। आप लोगों को बहुत कष्ट हुआ होगा। कात्यायिनी और नलिनी कहाँ है?’’
‘‘होटल में हैं। पहले तुम्हारे मकान पर चलें। किधर है वह?’’
‘‘यहाँ से समीप ही पड़ता है।’’ खड़वे ने नौकर को आवाज़ दे उसको प्याला दिया और कोठरी को ताला लगा चल पड़ा।
‘‘तो नलिनी को भी साथ ले लें?’’ उसने पूछा।
‘‘हाँ, यह ठीक रहेगा।’’
साइकल-रिक्शा में बैठकर वे श्रीपति के होटल पर पहुँचे और वहाँ से कात्यायिनी तथा नलिनी को लेकर खड़वे के मकान पर जा पहुँचे। नलिनी तो मकान देखकर चकित रह गई। जिस फर्नीचर को लगाने के लिए अति-व्यय का रोना रोया गया था, उसको देखकर तो नलिनी को स्वयं रोना आ गया।
कमरे में केवल दो तख्त रखे थे। न बैठने के लिए कुर्सी और न स्टूल। एक तख्त पर कात्यायिनी और नलिनी बैठे और दूसरे पर श्रीपति और खड़वे। खड़वे ने कहा,’’ ‘अब मैं अपने लॉज में जाकर अपना सामान ले आता हूँ।’’
श्रीपति बोला, ‘‘मै समझता हूँ कि हम अभी होटल में चलते हैं, आप सामान ले आइए, तभी यहाँ आकर रहने लायक होगा।’’
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