उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
जब उन्होंने खड़वे को स्टेशन पर नहीं देखा तो वे एक होटल में जाकर टिक गए। वहाँ स्नानादि और प्रातः का अल्पाहार कर श्रीपति खड़वे से मिलने के लिए उसके पते पर गया जिस पर उससे पत्र-व्यवहार होता था। वह युवकों का सम्मिलित लॉज था। कृष्णकान्त खड़वे वहाँ एक कमरे में तख्त पर बैठ चाय पी रहा था।
कृष्णकान्त इस प्रकार श्रीपति के आने की आशा कर रहा था। जब से उनके आने की सूचना उसको मिली थी, उसने सिरतोड़ यत्न किया था किसी प्रकार कोई मकान मिल जाए। मकान की खोज के कारण की खोज के कारण ही आज भी वह उनके स्वागत के लिए स्टेशन पर नहीं जा सका था।
आज ही उसको अपने किसी मित्र के मकान में दो कमरे मिल गए थे। उसमें स्नानागार और शौचस्थल साफ थे। कमरे को खाली करवा, अपने हाथ से साफ कर, सोने के लिए दो तख्त वहाँ रख वह स्टेशन जाने का विचार करने लगा तो उसे विदित हुआ कि गाड़ी आने के समय से एक घंटा अधिक बीत गया है। वह समझ गया कि अब उसका वहाँ जाना व्यर्थ है। वे स्वयं ही उसको ढूँढ़ते हुए उसके पास आ जाएँगे। वहाँ से वह अपने लॉज की ओर भागा। वह अपने मन में विचार करने लगा था कि उसकी पत्नी आदि यदि गाड़ी में चढ़ ही न पाएँ हो तो कितना अच्छा रहे!’’
इस प्रकार विचारों में बहता हुआ वह लॉज के साझे नौकर द्वारा संचालित टी-स्टॉल से चाय मँगवाकर उसकी सुरकियाँ लेता हुआ साहस का संचय कर रहा था कि श्रीपति उसके सम्मुख आ पहुँचा। उसे देख वह तख्त से उठकर उसका स्वागत करते हुए बोला, ‘‘तो आप लोग आ गए हैं। मैं स्टेशन पर गया था, मुझे पाँच मिनट का विलम्ब हो गया और ऐसी प्रतीत होता है कि इस अवधि में आप स्टेशन से बाहर निकल गए।’’
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