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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘तो मैं पिताजी से पूछूँगा। कल नूरुद्दीन ने भी कुछ इसी प्रकार की बात कही थी।’’

‘‘क्या कहा था उसने?’’

‘‘उसने कहा था कि पिताजी को हमारी कुछ सहायता करनी चाहिए। कदाचित् कुछ करते भी होंगे। आज करीमा ने कह दिया कि उसका पति उसको कुछ ऐसी बात कहता है कि पिताजी सहायता के लिए कुछ तुमको देते हैं।’’

माला ने बात बदल दी, ‘‘आज मेरी माताजी आई थीं। वे मुझको अपने घर ले चलने की बात कह रही थीं।’’

‘‘किसलिए?’’

‘‘ऐसे ही। वे कह रही थीं कि जानकी आई हुई है। अब वह छठे मास में है।’’

‘‘परन्तु तुमको तो अभी तीन भी पूरे नहीं हुए?’’

‘‘वे कहती थीं कि दोनों इकट्ठी रहेंगी तो ठीक रहेगा।’’

‘‘मैं इसमें लाभ के स्थान पर हानि देखता हूँ। दोनों को पृथक्-पृथक् ही रहना चाहिए।’’

‘‘मेरे विचार में तुमको यहीं प्रसव करना चाहिए। हस्पताल समीप है। घर पर भी सब प्रकार की सुविधा रहेगी। डॉक्टर है, लेडी डॉक्टर भी है। नर्स है, और मैं सदा समीप रहूँगा।’’

‘‘विचार करूँगी।’’

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