उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
|
350 पाठक हैं |
मैं न मानूँ...
भगवानदास ने घड़ी में समय देखा और कह दिया, ‘‘अभी तो आठ भी नहीं बजे। मैं तो वहाँ खाना खाने के लिए गया था, मगर माँ ने कह दिया कि मुझको फौरन लौट जाना चाहिए। इस हालत में बहू को बहुत देर तक अकेला नहीं छोड़ना चाहिए।’’
‘‘तो मेरी इस हालत की नगर-भर में डुग्गी पीट दी गई है?’’
‘‘नगर-भर में तो नहीं। हाँ, माँ को और मोहिनी बहन को ज़रूर पता चल गया है और वे इस समाचार को सुनकर बहुत खुशी मना रही हैं।’’
‘‘और मुझको इसमें लज्जा लग रही है।’’
‘‘लज्जा की क्या बात है, इसमें? जब कुछ था नहीं तो पिताजी से शिकायत करने गई थीं और जब है तो शर्म लगने लगी है?’’
‘‘पिताजी से कब शिकायत की थी?’’
‘‘जिस दिन तुम शहर वाला मकान छोड़कर माँ के घर जा रही थीं। पिताजी खाना खा कपड़े पहनने अपने कमरे में गए थे और तुम सोई हुई उठकर उनके पीछे वहाँ जा पहुँची थीं। तुम यही तो कहने गई थीं।’’
माला का मुख लज्जा से लाल हो गया। उसने पति को वहीं छोड़ दिया और बाहर आ, हाथ धो, खाने की मेज पर जा बैठी।
खाना खाते हुए भगवानदास ने पूछ लिया, ‘‘करीमा पिताजी के रुपयों की क्या बात कह रही थी?’’
‘‘मुझकों तो कुछ नहीं मालूम। उसको आपके वालिद देते होंगे और वह मेरा नाम झूठ ही लगा रही है।’’
|