उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
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रात को नूरुद्दीन की मोटर में डॉक्टर भगवानदास कोठी में आ गया। बाहर हार्न बजा तो माला ने समझा कि फिर वह बदकार औरत आई है। इससे वह उठकर बरामदे में आ गई। वह यह विचार करने लगी थी कि उसको दो-तीन जली-कटी सुनाकर बाहर से ही वापस कर दे, तो ठीक है। मगर मोटर में कोई नहीं था। ड्राइवर भगवानदास को छोड़कर मोटर ले गया। भगवानदास मोटर से उतर, कोठी के बरामदे में आया तो माला को सन्देह हो गया कि करीमा मोटर से उतरी नहीं। इससे वह जल-भुन गई। उसने पूछ लिया, ‘‘तो वह गई?’’
‘‘मोटर? हाँ, ड्राइवर ले गया है।’’
‘‘मैं मोटर की बात नहीं पूछ रही है। मैं तो आपकी प्रेमिका की बात पूछ रही हूँ।’’
‘‘मेरी प्रेमिका तो तुम हो और मेरे सामने खड़ी हो।’’
‘‘वह करीमा थी न? चली गई है न!’’
‘‘वह नहीं थी। मोटर में ड्राइवर ही था।’’
‘‘शुक्र है!’’
‘‘क्यों? वह तुम्हें काटती है, क्या?’’
‘‘उसको देख, मेरे तन-मन में आग लग जाती है।’’
‘‘मगर क्यों?’’ इस समय वे बरामदे से ड्राइंग-रूम में आ गए थे। भगवानदास कपड़े उतारने के लिए सोने के कमरे में जा रहा था। माला ने साथ-साथ चलते हुए पूछ लिया, ‘‘खाना खाकर आए हैं, क्या?
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