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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘और यहाँ आए कितने महीने हो गए हैं?’’

‘‘चौथा खत्म होने वाला है।’’

‘‘तो तुम तीसरे महीने में जा रही हो। अब तुम्हारा पुंसवन संस्कार होना चाहिए।’’

‘‘तो मेरी इस शर्म की बात नगर-भर में घोषित की जाएगी?’’

‘‘देखो माला! इसमें लज्जा की बात नहीं। तुमने हमारा परिवार चलाने का यह यत्न किया है। इससे हमको बहुत प्रसन्नता हुई है। परमात्मा की कृपा हुई तो लड़का होगा। नूरुद्दीन तो कहता था कि जरूर लड़का होगा। हम सब उसके इस कहने पर प्रसन्न हैं।

‘‘मेरी सास के घर एक लड़का हुआ था। वह अकेला ही लड़का था। उसकी दो बहनें थीं। मेरे घर दो लड़के हुए और उसकी एक बहन है और मैं परमात्मा से प्रार्थना करती हूँ कि तुम्हारे घर तीनों लड़के हों।’’

‘‘बहुत मुसीबत है!’’

‘‘मैं तुम्हारी माताजी से मिलने गई थी और उनसे यह संस्कार और शकुन कब किया जाए, इस पर विचार करके आई हूँ। अगले सप्ताह रविवार के दिन मुहूर्त्त है।’’

‘‘तुम्हारी माँ से यह भी फैसला कर आई हूँ कि प्रसव यहीं होगा। मैं तो दो-तीन दिन में यहाँ आ जाऊँगी। तुम्हारी माँ समय पर आ जाएँगी।’’

‘‘भगवानदास के पिता कह रहे थे कि अब एक मोटर तुमको भी ले लेनी चाहिए। उनका कहना है कि जो एक सौ पचपन रुपया वे प्रतिमास तुमको दे जाते हैं वह ड्राइवर के वेतन और पेट्रोल के लिए काफी है।’’

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