उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘कौन-सा एक सौ पचपन रुपया?’’
‘‘वे कह रहे थे कि हर महीने तुमको दे जाते हैं?’’
माला का मुख पीला पड़ गया। वह चुप बैठी रह गई। उसने इस बात का उत्तर नहीं दिया। रामदेई ने समझा कि माला को अभी भी शर्म लग रही है। कुछ देर तक माला चुपचाप रह, सास को वहीं छोड़, सोने के कमरे में जाकर लेट गई। उसकी सास ने यह समझा कि गर्भावस्था के कारण शिथिलता होने लगी है, इस कारण वह आराम करने चली गई है। उसने कोठी के अन्य भागों में देखभाल करनी और सीताराम से सफाई कराने आरम्भ कर दी। भगवानदास के पढ़ने-लिखने का कमरा भी झा़ड़-फूंककर साफ करवा दिया गया।
उस दिन भगवानदास कॉलेज से लौटा तो माला तब तक सोने के कमरे में लेटी हुई थी। उसने माँ को ड्राइंग-रूम में बैठे गीता पढ़ते देखा तो प्रसन्न हो पूछने लगा, ‘‘तो माँ! तुम आ गई हो।’’
‘‘नहीं, अभी दो दिन तक नहीं आ सकूँगी। मोहिनी को पिताजी की रोटी आदि बनाने के लिए आने को कहा था। वह परसों से वहाँ आएगी और तब मैं इधर आ जाऊँगी। मैंने माला को यह विचार बताया। वह इसको पसन्द करती हुई मालूम हुई है। फिर उसकी माँ भी इसी बात को ठीक समझती है।’’
‘‘माला कहाँ है?’’
‘‘भीतर लेटी है।’’
‘‘क्यों, ठीक तो है?’’
‘‘बेटा! ऐसा होता ही रहता है।’’
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