उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
चाय आई तो भगवानदास माला को सोने के कमरे से बुला लाया। माला सर्वथा पीतमुख हो रही थी। रामदेई ने पूछा, ‘‘क्यों? कुछ कष्ट है क्या?’’
‘‘कुछ दुर्बलता महसूस हो रही है।’’
‘‘चाय पी लो। देखो बेटा! थोड़ी-थोड़ी देर पर कुछ-न-कुछ खाते रहना चाहिए। यह पेट में बच्चे के खाना माँगने के लक्षण हैं।’’
वे चाय पी रहे ते कि करीमा मोटर लेकर आ गई। उसने आते ही रामदेई से कहा, ‘‘मैं आपके घर गई थी और आपको वहाँ न देख, यह ख्याल कर कि आप जरूर इधर आई होंगी, मैं भी इधर आ गई हूँ।’’
रामदेई ने उसके लिए भी प्याला लगा दिया और वह निश्चिन्तता से चाय पीने लगी। करीमा ने माला के मुख पर देखा तो पूछने लगी, ‘‘क्या बात है, भाभी! आज तुम्हारा मुख पीला क्यों पड़ गया है?’’
‘‘ठीक हूँ।’’ माला ने केवल इतना ही कहा।
‘‘मैं समझती हूँ। चलो जरा खुली हवा में घूम आएँ।’’
‘‘नहीं, तुम जाओ। मैं समझती हूँ कि खाने की कमी से ऐसा हो रहा है। मैं कई दिन से कम खा रही थी। मुझको भय लग रहा था कि कहीं अधिक खा गई तो उल्टी न होने लगे।’’
‘‘थोड़ा खाओ और दिन में कई बार खाओ।’’ रामदेई ने समझा दिया।
चाय समाप्त हुई तो करीमा भगवानदास और उसकी माँ को शहर वाले मकान पर ले गई।
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