उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
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दो दिन पहले नूरुद्दीन ने भगवानदास से कहा था कि उसका पिता कदाचित् उसकी सहायता करता भी है। इसको भगवानदास ने नूरुद्दीन की केवल इच्छा-मात्र समझा था, परन्तु अगले दिन करीमा ने स्पष्ट ही कह दिया कि उसने सुना है कि लालाजी माला को डेढ़ सौ रुपया महीना दे जाते हैं। इससे भगवानदास ने समझा कि किसी प्रकार पिताजी उसका रुपया उसकी पत्नी को पहुँचा जाते हैं। कदाचित् वे उसके रुपए का अनादर करना नहीं चाहते, इस कारण रुपया वापस कर देते हैं। इसकी समझ में यह भी आया कि माला ने वह रुपया कदाचित् अपना पाकेट खर्च मानकर अपने पास ही रख लिया है और उसको बताने की आवश्यकता नहीं समझी। परन्तु क्या यह सत्य है कि पिताजी रुपया वापस कर रहे हैं? उसने सोचा, इसकी जाँच-पड़ताल अवश्य करनी चाहिए।
उस दिन वह अपने शहर वाले चिकित्सालय में गया तो पिताजी के वहाँ आने की प्रतीक्षा करने लगा। जब से भगवानदास वहाँ रोगी देखने लगा, लोकनाथ दफ्तर से लौटकर सीधे ऊपर मकान पर चले जाया करते थे और प्रायः पौने सात बजे, जब अधिकांश रोगी, दिखाकर चले जाते थे, वह नीचे आ जाया करते थे। उस समय नूरुद्दीन भी वहाँ पहुँच जाता था। कभी खुदाबख्श भी किसी आवश्यक परामर्श करने के लिए आ जाता था। इस समय यदि किसी अन्य को लोकनाथ से काम होता, तो वह भी वहाँ आ जाता।
उस दिन पिताजी को आया देख भगवानदास ने उनको अपनी कुर्सी के समीप एक कुर्सी पर बैठाकर पूछ लिया, ‘‘क्या, आप मेरा दिया रुपया वापस कर देते हैं?’’
‘‘मैं उसमें पाँच रुपए अपने पास से डालकर माला को दे आया करता हूँ।’’
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