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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘यह आप कब से कर रहे हैं?’’

‘‘जब से तुम कोठी में गए हो। ऐसा चार बार हो चुका है। परन्तु क्या उसने तुम्हें कभी बताया नहीं?’’

‘‘नहीं! परन्तु पिताजी! मैं तो वह रुपए घर के खर्च में सहयोग देने के लिए दे रहा था।’’

‘‘मैं तुम्हारी इस भावना से बहुत प्रसन्न हूँ, भगवान! परन्तु परमात्मा की कृपा से घर का खर्च चलाने में मुझको किसी प्रकार कि कठिनाई नहीं होती। इसी कारण वह वापस कर देता हूँ।’’

भगवानदास ने आगे बात नहीं चलाई।

लोकनाथ और रामदेई ने यह समझा कि अब सब बात भगवानदास और माला में खुल गई होगी और माला ने रुपए के विषय में न बताने का कारण अपने पति को बताकर, उसको सन्तुष्ट कर दिया होगा। जब अगले दिन पुनः रामदेई आई तो उसने माला को स्पष्ट ही कह दिया कि एक सौ पचपन रुपए जो उसको दिए जा रहे हैं वे पेट्रोल तथा ड्राइवर के लिए पर्याप्त हो जाएँगे।

रामदेई ने माला के चुप रहने का कारण यह समझा कि उसको अपने पति वो रुपयों के विषय में न बताने की लज्जा आई है और वह इस विषय पर बात करना नहीं चाहती। ऐसा अनुमान लगा, उसने भी इस बात को अपने मन से निकाल दिया और सायंकाल, जब तक वह वहाँ रही, उसने पुनः उस रुपए की बात नहीं की। उस रात रामदेई ने अपने पति को भी कह दिया, ‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि माला ने भगवानदास की तसल्ली करा दी है। अब हमको इस विषय में और कुछ नहीं कहना-सुनना चाहिए।’’

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