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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘ठीक है। तुम कब जा रही हो?’’

‘‘माला के पास रहने के लिए न?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘मोहिनी परसों इस घर में रहने के लिए आ जाएगी। वह आपके भोजन की व्यवस्था करेगी। कान्तिनारायण और बच्चे भी यहाँ आकर ही रहेंगे। तब मैं जाऊँगी।’’

‘‘बहुत कष्ट दोगी उनको।’’

‘‘परिवार में ऐसा होता ही है। कहते हैं ‘दहिना धोये बायें को और बायाँ धोये दहिने को।’’

उस दिन लोकनाथ ने तो भगवानदास से रुपए की बात नहीं की। परन्तु नूरुद्दीन अपने मित्र को अपनी मोटर में लेकर गया तो भगवानदास ने ही बात आरम्भ कर दी।

उसने पूछ लिया, ‘‘कितने की ली है, यह मोटर?’’

‘‘साढ़े सात हज़ार की।’’

‘‘क्या मेकर है?’’

‘‘डॉज। बहुत मज़बूत गाड़ी है।’’

‘‘तब तो यह ली ही जा सकती है। माला के पिता ने जो रुपया गाड़ी के लिए दिया था वह माला के एकाउण्ट में ही जमा है। अब तो ग्यारह हज़ार से कुछ ऊपर ही हो गया होगा।’’

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