उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘मुझको बताकर लेना। मैं कुछ कमीशन दिलवा सकता हूँ।’’
‘‘कैसे?’’
‘‘इसका एजेण्ट मेरा दोस्त है। इस गाड़ी में भी पाँच सौ रुपया कम करवाया है।’’
‘‘तब तो ठीक है।’’
‘‘तो लालाजी मदद करने की बात मान गए हैं?’’
‘‘वे तो पहले से ही मदद कर रहे थे। माला डर रही थी कि कहीं दाम ग्यारह हज़ार से अधिक न हों?’’
‘‘तो यह बात है। मैं समझता हूँ कि मोटरकार रखने से डॉक्टर की शान और रुतबा बढ़ जाता है। तुमको मोटर कोठी में रखनी चाहिए। इसके साथ ही बँगले में और शहर वाले मकान में टेलिफोन लगवा लो जिससे तुम चाहे कहीं भी हो, रोगी तुमसे फोन पर मशवरा कर सकें।’’
‘‘यह भी करूँगा।’’
इस प्रकार बातचीत करते हुए वे वहाँ पहुँचे तो सीताराम नौकर बरामदे में खड़ा था। सीताराम ने बताया, ‘‘बीबीजी घर पर नहीं हैं?’’
‘‘कहाँ हैं?’’
‘‘बताकर नहीं गईं। मुझको कह गई हैं कि मैं यहाँ बरामदे से हिलकर कहीं न जाऊँ।’’
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