उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘कितनी देर हुई, गए हुए?’’
‘‘तीसरे पहर की चाय पीकर आप गए तो वे भी कपड़े पहनने चली गईं। कपड़े पहनकर आईं तो उनके हाथ में एक सूटकेस था। उन्होंने ताँगा मँगवाया और उसमें सवार हो चली गई। तब से ही मैं यहाँ बैठा हूँ।’’
‘‘अच्छा, खाना बनाओ।’’
सीताराम भीतर चला गया तो नूरुद्दीन और भगवान विचार करने लगे। नूरुद्दीन बहुत कल्पनाशक्ति रखता था। उसने कह दिया, ‘‘दोस्त! पत्नी फिर भाग गई मालूम होती है।’’
‘‘भागने का कोई कारण नहीं।’’
‘‘क्या पहले भी कभी ऐसा हुआ है?’’
‘‘नहीं। वह सदा आठ बजे तक मेरी यहाँ प्रतीक्षा करती है। जब मैं आठ बजे से पहले आ जाता हूँ तो खाना इकट्ठे खाते हैं। जिस दिन सवा आठ बजे तक मैं न आऊँ, उस दिन वह खाना खा लेती है। आज तो हम आठ बजने में पाँच मिनट रहते तक यहाँ आ गए थे।’’
‘‘तनिक पड़ोसियों के घरों से पता करो।’’
भगवानदास डॉक्टर खोसला के घर चला गया। नूरुद्दीन वहीं बैठा रहा। खाना परस दिया गया। भगवानदास अभी भी नहीं लौटा था। नूरुद्दीन ने सीताराम को डॉक्टर के पीछे भेज दिया। आधे घण्टे के बाद भगवानदास लौटा और बोला–‘‘वह पड़ोस में किसी के यहाँ नहीं गई। मिसेज़ खोसला ने उसको ताँगे में अनारकली बाज़ार की ओर जाते देखा है। मैं समझता हूँ कि वह अपने माता-पिता के घर चली गई है।’’
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