उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘तो चलो। मोटर में चल वहाँ से पता कर आएँ?’’
‘‘नहीं! जरा खाना खाकर दिमाग़ सही कर लें। कई दिन से उसकी बातों से खिजा बैठा हूँ। खाली पेट तो मुझको भी क्रोध आ जाएगा और मैं उससे झगड़ा करना नहीं चाहता।’’
नूरुद्दीन चुप रहा। भोजन किया गया और नौकर को अपनी कोठरी में आराम करने को कह, शेष कमरों में ताला लगा, दोनों मित्र शरणदास के मकान के नीचे जा पहुँचे। नूरुद्दीन नीचे मोटर में बैठा रहा और भगवानदास ऊपर मकान पर चढ़ गया। आधे घंटे के बाद भगवानदास नीचे उतरा। रामकृष्ण भगवानदास के साथ था। उसने नूरुद्दीन को मोटर में बैठे देख सलाम की ओर कह दिया, ‘‘नूरुद्दीन भैया! मैंने तुमको एक बात पाँच महीने पहले कही थी। वह बात फिर पैदा हो गई है।’’
नूरुद्दीन भौंचक्का हो उसका मुख देखता रह गया। फिर बोला, ‘‘अच्छा? मुझको तो पता नहीं।’’
‘‘लेकिन हो तो गई है।’’
भगवानदास से हाथ जोड़ नमस्ते की और मोटर में बैठ गया। ड्राइवर ने मोटर चला दी।
नूरुद्दीन ने भगवानदास के घर जा ड्राइंग रूम में बैठ पूछ लिया, ‘‘क्या बात है? वह क्यों चली गई है?’’
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