उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘वह तो मुझको मिली नहीं। रामकृष्ण ही बताता रहा है। उसने बताया है कि माला की माँ कई दिन से माला की सेहत बिगड़ रही देख रही थी। आज वह वहाँ पहुँची। माला बिल्कुल ही कोलैप्स (शिथिल) हो गई। दिल बैठ रहा था और वह ताँगा लेकर साढ़े पाँच बजे की यहाँ आई हुई है। डॉक्टर को दिखाया है और उसका कहना है कि इसको दिल का दौरा पड़ा है। इस कारण इसको बिल्कुल आराम करने देना चाहिए। रामकृष्ण ने यह भी कहा कि डॉक्टर की सम्मति है कि इसको अपने ससुराल वालों से बिलकुल मिलने नहीं देना चाहिए। इससे मैं उसके कमरे में नहीं गया। माला की माँ उसके पास थी।’’
नूरुद्दीन उस समय तो चुप रहा। मगर भगवानदास को यह कह कि अगले दिन उसकी खबर लेने जाए, वह सीधा लाला लोकनाथ के घर जा पहुँचा। उसने दरवाजे के बाहर लगी घंटी बजाई। लालाजी नीचे आए तो नूरुद्दीन ने बैठक में बैठकर पूछा, ‘‘लालाजी! एक बात पूछने आया हूँ। नाराज न हों तो पूछूँ?’’
‘‘नूरे! यह आज कैसी बातें कर रहे हो? क्या तुमने मुझको कभी भी नाराज़ होते देखा है?’’
‘‘आज आप भगवानदास के घर गए थे क्या?’’
‘‘नहीं तो। क्या हुआ है?’’
‘‘आप रुपए देने के अतिरिक्त भी कभी उसकी पत्नी से मिले हैं?’’
‘‘नहीं!’’ लोकनाथ को उस संकेत का स्मरण आया जो नूरुद्दीन ने उसको दिया था। उसमें उसने रामकृष्ण के कथन का उल्लेख किया था। इस कारण उसने चिन्ता व्यक्त करते हुए पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ है, वहाँ?’’
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