उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
फूलचन्द ने एम.ए. पास कर लिया। वह चाचा नरोत्तम की कम्पनी में मैंनेजर का काम करने लगा था। लोकनाथ ने उसके विवाह का प्रबन्ध किया तो उसके विवाह के निमंत्रण-पत्र बँटे। फूल को, उस निमंत्रण-पत्र को देने के लिए अपनी माँ और मामा के परिवार में भेजा गया। माँ ने निमंत्रण-पत्र पढ़ा तो पूछने लगी, ‘‘फूल! बहू देखी है?’’
‘‘हाँ, माँ!’’
‘‘कैसी है?’’
‘‘बहुत सुन्दर है।’’
‘‘क्या नाम है?’’
‘‘रहमत।’’
‘‘ओह! किस की बेटी है?’’
‘‘चाचा नूरुद्दीन की और चाची करीमा की।’’
‘‘यह शादी अपने बाबा और दादी के कहने पर कर रहे हो?’’
‘‘नहीं माँ! मैंने खुद उसको चुना है। कई वर्ष से मेरी उससे मुहब्बत थी। एम.ए. पास करने के बाद मैंने पिताजी और दादा जी से कहा तो उन्होंने पहले इनकार कर दिया। मैंने हठ किया। एक दिन तो मुझको और रहमत को भूख हड़ताल भी करनी पड़ी। आखिर बाबा और दादी मान गए।’’
‘‘और तुम्हारे पिता क्या कहते हैं?’’
‘‘वे कहते हैं अपने बाबा और दादी का कहा मानो। मैं भी उनका कहना मानता हूँ।’’
‘‘देखो फूल! मैं वहाँ नहीं जाऊँगी। मगर अपनी बहू को लेकर मुझसे आशीर्वाद लेने यहाँ आना।’’
रस्सी जल गई पर बल नहीं टूटे।
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