उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
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फूलचन्द लोकनाथ के घर ही रह गया। शरणदास के चौथे के दिन लोकनाथ, भगवानदास और नरोत्तम भी गए। इन्होंने रामकृष्ण से शोक प्रकट किया, परन्तु फूल तथा माला के विषय में कोई बात नहीं हुई। फूल स्कूल की छठी श्रेणी में पढ़ता था। वह अब कोर्ट रोट की कोठी पर से मोटर में स्कूल जाने लगा था। एक दिन उसने माँ को टेलीफोन पर कहा–‘‘तुम यहाँ आओ न।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘यहाँ एक चाची है करीमा! वे कहती हैं कि तुमको आना चाहिए।’’
‘‘तुम बताओ। प्रसन्न हो?’’
‘‘यहाँ बहुत मज़ा है। मुनव्वर भापा मुझको पढ़ाते हैं। एक नरोत्तम चाचा हैं, वे मुझको बहुत प्यार करते हैं। बाबा भी हर रोज़ अपने पास बैठाकर बताया करते हैं कि माँ और पिता को परमात्मा समझो।’’
‘‘अच्छा, फूल! तुम वहाँ रहो। मुझको कभी-कभी टेलीफोन कर लिया करो। कभी मिलने को जी करे तो दादी माँ को कहकर उनसे गाड़ी लेकर मिल जाया करो।’’
‘‘पर, माँ! तुम आती क्यों नहीं?’’
‘‘देखो फूल! अहल्या की कहानी पढ़ी थी न? उसने कुछ कुकर्म किया था। इस कारण वह पत्थर हो गई थी। भगवान राम का जन्म हुआ और उसने उसका उद्धार किया। इसी तरह मैं भी तपस्या कर रही हूँ। कोई भगवान् राम मेरा उद्धार करेंगे तो मैं भी तुमसे मिलने आऊँगी।’’
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