उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
फूल के नाना के देहान्त के कारण कोठी में शोक छाया हुआ था। इस कारण उसको यह कोठी उसे भली लग रही थी। फिर भी वह माँ से डरता था। उसने कहा, ‘‘माँ यहाँ रहने के लिए मना करेगी?’’
‘‘पूछ लो न। मना करेगी तो तुमको छोड़ आएँगे।’’
फूलचन्द को एक बात सूझी। वह तो यहाँ भी बिना पूछ आया था। अतः टेलीफोन करने से दो मतलब पूरे होने की आशा में उसने पूछ लिया, ‘‘कहाँ है टेलीफोन?’’
करीमा उसको ले कोठी में चली गई। रामदेई ने कह दिया, ‘‘मुझको कुछ ऐसा मालूम होता है कि वह इसको यहाँ रहने की स्वीकृति दे देगी।’’
‘‘मुझको भी कुछ यही लग रहा है। कदाचित् वह, इसके द्वारा पुनः अपना अधिकार पाने की आशा करती है। मगर...।’’
मोहिनी ने बात बीच में काटकर कह दिया, ‘‘भैया! पहले ही कुछ मत कहो। किस समय क्या उचित प्रतीत होगा, उसका अभी से मत निर्णय करो।’’
भगवानदास चुप रहा। बैरा चाय लेकर आ गया था। अभी चाय लग ही रही थी कि करीमा और फूल दोनों अति प्रसन्नवदन कोठी से उधर आते दिखाई दिए। फूल ने आते ही कहा, ‘‘माँ ने कहा है कि मैं चाहूँ तो कुछ दिन यहाँ रह सकता हूँ।’’
‘‘तो ठीक है।’’
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