उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
फूल ने कहा–‘‘माँ ने बताया था कि एक दुर्घटना में पिताजी का देहान्त हो चुका है।’’
तीनों औरतें मुस्कराती हुई उसकी ओर देखती रहीं। डॉक्टर भगवानदास, कोठी के लॉन में बैठा एक पुस्तक पढ़ रहा था। वे तीनों, लड़के को लेकर उसके पास जा खड़ी हुईं। भगवानदास का ध्यान भंग हुआ तो उसने लड़के को खड़े देखा। देखते ही पहचान गया। उसको यह विदित था कि वे कहाँ गई हैं।
‘‘तो इसको भी साथ ले आई हो?’’ उसने माँ से पूछा।
‘‘हाँ!’’ करीमा ने कहा, ‘‘इस बेचारे को यह पता नहीं था कि इसका बाप जीवित है।’’
रामदेई ने माली को कहा कि बैठने के लिए कुर्सियाँ ले आए।
भगवानदास ने कहा–‘‘फूल! तुम्हारी माँ ने सत्य बात नहीं बताई। उसके लिए मैं मर ही चुका हूँ, मगर तुम्हारे लिए नहीं। बैठो!’’
कुर्सियाँ आ गईं। रामदेई ने चाय के लिए कोठी में कहला भेजा। फूल बैठा तो भगवानदास ने कहा, ‘‘फूल, देखो! अगर तुम चाहो तो यहाँ इस कोठी में रह सकते हो।’’
‘‘और माँ?’’
‘‘उसके लिए सत्य ही मैं मर चुका हूँ। वह यहाँ नहीं आएगी।’’
‘‘माँ नाराज़ होगी।’’
‘‘तो टेलीफोन पर पूछ लो।’’
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