उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘तो फिर क्या हुआ? छः महीने भाभी हमारे पास रहेगी?’’
‘‘तो तुम भी चाहती हो?’’
‘‘बिलकुल और फौरन। देखिए माताजी! मन में तो भैया भी चाहते होंगे कि शादी हो जाए, मगर शर्म के मारे क्या कहें?जब पिताजी ने कह दिया कि शादी इम्तिहान के बाद होगी तो वे क्यों कहते कि फौरन हो जाए?’’
‘‘मगर पढ़ाई में तो हरज होगा है न?’’
‘‘मैं तो समझती हूँ कि मुनव्वर के वालिद की शादी दसवीं जमात में इम्तिहान से पहले हो जाती तो वे इम्तहान में पास हो जाते।’’
‘‘तुम तो बिलकुल उल्टी बात कर रही हो?’’
‘‘माताजी! मैं समझती हूँ कि शादी के बाद दिमाग के बहुत से फतूर ठंडे पड़ जाते हैं और पढ़ाई अच्छी तरह हो सकती है। खराबी तो हद से ज्यादा सोहबत में है।’’
‘‘यही तो बात है। इसको कैसे रोक सकते हैं?’’
‘‘यह तो इनकी लड़की ही रोक सकेगी।’’
‘‘तो क्या तुम अपने घरवाले को रोक सकी हो?’’
‘‘हाँ माँजी! वे हिसाब में फेल हुए थे और अब हिसाब में वे किसी भी बनिया को मात कर देंगे।’’
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