उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
|
350 पाठक हैं |
मैं न मानूँ...
‘‘ये कहती है’’, भगवानदास की माँ ने मायारानी की ओर संकेत कर कहा, ‘‘कि इनको अपनी छोटी लड़की की शादी करनी है। जानकी अब सोलह वर्ष की हो गई है। भगवान की बहू तो अठारह वर्ष की हो चुकी है। बिना बड़ी लड़की की शादी किए ये छोटी की शादी नहीं कर सकते।’’
‘‘तो दोनों की इकट्ठी ही कर दें।’’
‘‘यही तो कह रही हैं।’’
‘‘माताजी, मान जाइए।’’
‘‘तो ऐसा करो, नूरुद्दीन को कहकर भगवानदास को मना लो, हमको कोई आपत्ति नहीं हो सकती।’’
यह सुनकर भगवानदास की सास बोल उठी, ‘‘अगर हमको इजाज़त दें तो हम लड़के तो तैयार करने का यत्न करें।’’
‘‘लड़का आपका है। आप उसे समझाइए-बुझाइए, चाहे कान पकड़ कर राजी कर लीजिए।’’ रामदेई ने कह दिया।
मायारानी अति प्रसन्न हो, वहाँ से विदा हो गई। उसने करीमा को भी देखा था और उसकी बातचीत के ढंग से बहुत खुश हुई थी। वह प्रसन्न-वदन वहाँ से लौटी । उसको आशा हो गई थी कि विवाह हो जाएगा।
जब मायादेवी चली गई तो करीमा हँस पड़ी। इस पर रामदेई ने पूछ लिया, ‘‘क्यों, हँसी क्यों हो?’’
‘‘इसलिए कि भगवान भापा अब फँसे हैं। अभी तो वह औरतों से नफरत करते थे, अब मज़ा आएगा।’’
|