उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
रामदेई ने बात बदल दी। उसने पूछा, ‘‘कल की पंडिताइन वाली बात पर नाराज़ तो नहीं हो?’’
‘‘मैं तो आपसे ही पूछने वाली थी। कल मैंने पंडिताइन को कहा था, जरा रास्ता छोड़ दो। इस पर उसके माथे पर त्योरी चढ़ गई थी। मैं उम्मीद करती हूँ कि मुझको खूब गाली दी होंगी।’’
‘‘नही’’! गाली नहीं दी। मैं तो चाहती थी कि तुम भी बैठकर सुन लेतीं। मगर सब लोग एक समान समझदार तो होते नहीं।’’
‘‘हाँ माताजी! इसलिए हम लोगों को, जो अपने को समझदार समझते हैं, उनकी अकल पर रहम करना चाहिए और उनकी बेवकूफियों पर हँस देना चाहिए।’’
‘‘अच्छा तो यह बताओ, भगवान की शादी कर देनी चाहिए?’’
‘‘जब लड़की के माता-पिता कहते हैं तो शादी कर देनी चाहिए। क्या हरज़ है?’’
लाला लोकनाथ को मनाने में कठिनाई नहीं हुई। भगवानदास को यह झंझट पसन्द नहीं था। उसने अपने माता-पिता को तो कह दिया था कि वह अभी छः महीने विवाह नहीं करेगा। मगर जब नूरुद्दीन रामकृष्ण के साथ उसको समझाने आया तो वह इन्कार नहीं कर सका। बात पक्की हो गई। विवाह की तारीख तय हो गई और दोनों ओर से तैयारियाँ होने लगीं। शरणदास ने दोनों लड़कियों का विवाह दो दिन के अन्तर पर कर दिया।
शरणदास ने बारातियों को बहुत खिलाया-पिलाया और लड़की को भूषण, वस्त्र और घर का फर्नीचर दिया। भगवानदास को नकद ग्यारह हज़ार दिया। यह भी कह दिया कि जब वह प्रैक्टिस शुरू करेगा तो उसको मोटर खरीदनी चाहिए।
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