उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
बाजे-गाजे के साथ बहू की डोली लाई गई। दो दिन तक घर में धूम मची रही। सबसे अधिक प्रसन्नता का प्रदर्शन करीमा ने किया।
तीसरे दिन जब घर से सब मेहमान विदा हो गए तो रामदेई ने बहू से करीमा का परिचय करा दिया, ‘‘देखो माला! यह है करीमा, तुम्हारी देवरानी। भगवानदास का दिली दोस्त है नूरुद्दीन और यह उसकी बीवी और मेरी पतोहू है।’’
माला ने सुना तो नाक चढ़ा ली। करीमा ने देखा तो हँस पड़ी। माला ने माथे पर त्योरी चढ़ाकर उसकी तरफ देखा तो करीमा ने गम्भीर हो कहा, ‘‘माला बहन! अभी तो पहली बार मिले हैं। इसमें अभी तो नफ़रत और मोहब्बत की कोई बात ही नहीं हुई। इसी से कह रही हूँ कि अभी इतना समझों कि मैं भी तुम्हारी बहन हूँ।’’
‘‘देखा है।’’ माला ने कह दिया।
‘‘क्या देखा है?’’
‘‘इस गोरी खाल के पीछे काला मन है।’’
‘‘किस दूरबीन से देखा है? अच्छा सुनो! अपने घरवाले के सामने यह माथे पर बल मत लाना। आज सुहागरात है। झगड़ा किया तो जीवन-भर पछताओगी।’’
माला को यह भविष्यवाणी तो समझ में तो आई, परन्तु इस पर विश्वास नहीं आया। उसने कहा, ‘‘मैं तुमसे ज्यादा पढ़ी-लिखी हूँ। तुमसे ज्यादा अक्ल रखती हूँ। आयु में भी तुमसे कम मालूम नहीं होती। इससे तुम हमारे कामों में दखल मत देना। नहीं तो ठीक नहीं होगा।’’
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