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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘दखल तो दूँगी बहन! तुम मेरी मानना नहीं। समझदार बेसमझों की बात को सुनते हैं पर मानते नहीं।’’

इतना कह वह मुस्कराई और फिर भगवान की माँ से कहने लगी, ‘‘माला बहन भैया को सीधा कर देगी। मैं बहुत खुश हूँ।’’

उस दिन भगवानदास की हस्पताल में ड्यूटी थी। वह रात के साढ़े आठ बजे आया। पिछले तीन-चार दिन तो वह कॉलेज के काम में समय नहीं दे सका था। आज वह कॉलेज गया था और पढ़ाई के पश्चात् हस्पताल में भी गया। वहाँ से वह लौटा तो भोजन कर, अपने पढ़ाई के कमरे में जा बैठा और भीतर से कुण्डा चढ़ा लिया। दो घण्टा काम कर वह ग्यारह बजे सोने के लिए अपने सोने के कमरे में चला गया। वह अभी कपड़े बदल ही रहा था कि माला उठी और कमरे का दरवाजा भीतर से बन्द कर पलंग पर जा बैठी। कमरे में दो पलंग लगे थे। दोनों साथ-साथ लगे थे। ये दोनों पलंग विवाह पर मिले थे। दोनों पलंगों पर एकसमान बिस्तर था। इस कारण यह कहना कि कौन किसका बिस्तर है, कठिन था।

भगवान कपड़े बदल ही रहा था कि माला ने कह दिया, ‘‘बहुत देरी कर दी है?’’

‘‘देरी? नहीं, मैं समझता हूँ कि तुम कुछ जल्दी आ गई हो।’’

‘‘जल्दी आ गई हूँ? प्रतीक्षा करते-करते ऊब गई थी तो अपने आप यहाँ चली आई हूँ।’’

‘‘फिर भी छः महीने समय से पूर्व आ गई हो।’’

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