उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
माला की अब समझ में आया कि वह विवाह की बात कर रहा है। इस से उसके मुख पर मुसकराहट दौड़ गई। उसने कहा, ‘‘जी, वह तो आ गई हूँ। अब लौट नहीं सकती। मैं आज रात की बात कर रही थी।’’
‘‘ओह!’’ भगवानदास ने घड़ी देखते हुए कहा, ‘‘अभी तो ग्यारह बजे हैं। खैर, तुम सोई नहीं, यही गनीमत है। कितने बजे सो जाया करती थीं, अपनी माँ के घर में?’’
‘‘वहाँ तो नौ बजे सो जाते थे। सुबह पाँच बजे नींद खुल जाया करती थी, अब आज देखें।’’
‘‘बहुत सोते हैं आप लोग। आठ घण्टे। यह तो बहुत ज्यादा है। इससे आदमी बीमार भी हो सकता है।’’
‘‘अभी तक तो हुई नहीं। अब डॉक्टर साहब के घर बीमार हुई तो शर्म की बात है।’’
‘‘घर आने से क्या होता है? डॉक्टर की बात मानोगी तो डॉक्टर की जिम्मेवारी होगी। नहीं तो डॉक्टर बेचारा क्या करेगा।’’
भगवानदास उसके पास ही पलंग पर बैठ गया। उसने अपनी जेब से एक अँगूठी निकाली और उसे माला के बाएँ हाथ की अँगुली पर चढ़ाते हुए बोला, ‘‘यह मेरी ओर से, नए जीवन में अपनी पत्नी के लिए प्रथम भेंट है। पसन्द आई है?’’
माला ने हाथ कुछ दूर रखकर,बिजली के प्रकाश में उसकी चमक देख कहा, ‘‘असली हीरा मालूम होता है।’’
‘‘जेवर परखने में तो बहुत समझदार मालूम होती हो।’’
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