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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘माँ के पास कई अँगूठियाँ हैं, जिनमें हीरे लगे हैं।’’

‘‘चलो। एक तुम्हारे पास भी हो गई।’’

‘‘कितने की लाए हैं?’’

‘‘अभी मूल्य नहीं चुकाया।’’

‘‘तो उधार लाए हो?’’

‘‘नहीं; रुपया जमा करा आया हूँ। मगर अभी बिल नहीं बना।’’

‘‘ये सर्राफ भारी चोर होते हैं, आपको सावधान रहना चाहिए।’’

‘‘तो मूल्य चुकाने से पहले तुमसे पूछ लूँगा। तुम तो इस विषय में बहुत समझदार मालूम होती हो।’’

‘‘कहेंगे तो अपने पिताजी के जौहरी से दाम लगवा लेंगे।’’

‘‘नहीं। इसकी जरूरत नहीं। जितना भी मूल्य तुम आँकोगी, उतना मैं दे दूँगा। मैं समझता हूँ कि तुमको बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ी है। अब सो जाएँ।’’

‘‘मगर सोने से पहले एक बार आपको माननी होगी।’’

‘‘हाँ, कहो?’’

‘‘आपके दोस्त की बावी है न? क्या नाम है उसका?’’

‘‘करीमा की बात कह रही हो?’’

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