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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘जी हाँ। मैं चाहती हूँ कि उसको इस घर में आने से मना कर दीजिए।’’

‘‘क्यों, क्या किया है उसने?’’

‘‘इसके बताने की भी आवश्यकता है क्या?’’

‘‘देखो माला! यह घर मेरा नहीं। मेरे माता-पिता का है। इसमें कौन आता है और कौन नहीं आता, मेरे अधिकार से बाहर है। हाँ, यह कमरा मेरा है। इसमें तुम चाहो तो वह नहीं आएगी। एक बात मैं और बता देना चाहता हूँ कि इस घर में जितना मेरा अधिकार है, उतने से ज्यादा तुम्हारा नहीं हो सकता।’’

‘‘तो यह बात माताजी से कहूँ?’’

‘‘विचार कर लो। मेरी राय मानो तो इस कमरे से बाहर की बातों में दखल मत देना।’’

इस बात से करीमा के विषय में माला को जो सन्देह था, वह कुछ पक्का ही हुआ था। साथ ही उसने यह समझ लिया कि अपने सास-श्वसुर से पृथक् मकान में रहना चाहिए। इसी से उसका अधिकार-क्षेत्र शयनागार से बाहर तक जा सकता है। उस रात इससे अधिक बात नहीं हो सकी।

अगले दिन हँसी-हँसी में नूरुद्दीन ने पूछ लिया, ‘‘बीवी कैसी है भगवान।’’

भगवान को स्मरण था। उसने भी नूरुद्दीन की शादी के कुछ दिन बाद उससे पूछा था। नुरुद्दीन का उत्तर उसको स्मरण था। नूरुद्दीन ने कहा था, ‘‘बहुत मज़ेदार है।’’ अब वही प्रश्न नूरुद्दीन के मुख से सुन, वह विचार करने लगा कि क्या बताए। वह रात के अनुभव को स्मरण कर, उसको प्रकट करने के लिए शब्द ढूँढ़ ही रहा था। एकाएक उसको बात समझ में आ गई। उसने कहा, ‘‘हरी मिर्च है।’’

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