उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘हरी मिर्च? क्या मतलब?’’
‘‘बस, हरी मिर्च। देखने पर चखने को जी किया। चखने पर बहुत ही तीखी लगी। मगर छोड़ने की तबीयत भी नहीं थी। चखने पर अभी तक स्वाद आ रहा है। ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता है उसका तीखापन कम हो रहा है और उसका स्वाद बढ़ रहा है। साथ ही फिर चखने को तबीयत कर रही है।’’
नूरुद्दीन खिलखिलाकर हँस पड़ा। हँसते हुए उसने कहा, ‘‘मुझको भी अपनी बीवी की संगति की पहली रात याद है। मुझको वह खीर मालूम हुई थी। चम्मच-भर-भरकर कर खाता रहा था और उसकी तृप्ति कई दिन तक रही थी। अब भी वह खीर ही मालूम होती है। रोज मिलती नहीं मगर जब मिलती है, खीर खाने की-सी तृप्ति होती है और उसका मीठा स्वाद कई दिन तक आता रहता है।
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