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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...

द्वितीय परिच्छेद

1

भगवानदास की परीक्षा समाप्त हुई और वह अपनी श्रेणी में प्रथम रहा। उसका परीक्षाफल घोषित होते ही उसी हस्पताल में हाउस सर्जन की नियुक्ति हो गई। वेतन डेढ़ सौ रुपए ही थी। इसके साथ ही उसको प्रिंसिपल ने कॉलेज में ‘प्रोफेसर-शिप’ के लिए प्रार्थना करने को कह दिया। परिणाम यह हुआ कि एक वर्ष तक हस्पताल में काम करने के बाद ही वह पाँच सौ रुपया मासिक पर ‘फिज़िओलोजी’ (शरीर-क्रियाविज्ञान) पढ़ाने के लिए मैडिकल कॉलेज में नियुक्त कर लिया गया।

उसने घर के बाहर बोर्ड लगवा दिया गया, ‘‘भगवानदास एम.बी.बी.एस., प्रोफेसर, मैडिकल कॉलिज, लाहोर।’’

जिस दिन बोर्ड लगा, उस दिन कई दिन माँ के घर में रहकर माला ससुराल आई थी। उसने घर के द्वार के बाहर नाम पर बोर्ड लगा देखा तो वहीं-की-वहीं खड़ी रह गई। उसकी माँ उसे छोड़ने आई थी। उसने पूछा भी, ‘‘माला! खड़ी क्यों हो गई हो?’’

इतने में माला ने उस बोर्ड का अर्थ समझ लिया था और वह घर में प्रविष्ट हो गई। नीचे बैठक में नूरुद्दीन, लोकनाथ, खुदाबख्श और भगवानदास बैठे हुए थे। मायारानी और माला ऊपर चढ़ गईं। ऊपर बड़े कमरे में भगवानदास की माँ, रामदेई, भगवानदास की बहन मोहिन और करीमा बैठी थीं। करीमा ने सबसे पहले माला को देखा और उसने कह दिया, ‘‘लो भाभी आ गई हैं।’’

रामदेई और मोहिनी भी सीढ़ियों की ओर देखने लगीं। माला और उसके पीछे माला की माँ भीतर आईं। तीनो घर की औरतें खड़ी हो, आने वालों का स्वागत करने लगीं। माला ने हाथ जोड़, थोड़ा-सा सिर झुकाकर नमस्कार किया और अपने कमरे की ओर चलने लगी। मोहिनी ने उसकी बाँह-में-बाँह डालकर रोकते हुए कहा, ‘‘भाभी! जो कुछ माँ के घर से लाई हो दिखा तो जाओ।’’

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