उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
करीमा और रामदेई हँसने लगीं। माला के माथे पर त्योरी चढ़ गईं। माला की माँ ने बात को बदलने के विचार से कहा, ‘‘माला! ठीक तो कह रही है मोहिनी। भागी कहाँ जा रही हो? भगवानजी तो नीचे हैं। वे आएँगे तो कमरे में चली जाना।’’
विवश होकर माला को वहीं सबके साथ बैठ जाना पड़ा। मायादेवी के हाथ में गठरी थी। उसने गठरी सबके बीच में रख दी। उसमें ग्यारह ‘मट्ठियाँ’ थीं और एक डिब्बे में मिठाई थी।
मोहिनी ने हँसते हुए कहा, ‘‘आज तो भाभी पकड़ी गई हैं। करीमा बहन! खाओगी न ‘मट्ठी’?’’
‘‘भाभी देंगी तो खाऊँगी क्यों नहीं?’’
‘‘वाह, भाभी से छीनकर नहीं खाओगी?’’
‘‘छीनने की क्या ज़रूरत है मोहिनी।’’ मायारानी ने कह दिया, ‘‘मैं तो अपने आप ही देनेवाली थी।’’
‘‘मौसी! कुछ मज़ा नहीं रहा। छीनने का जो स्वाद है, वह सब आपने खत्म कर दिया। अब तो केवल मट्ठी का ही स्वाद रह गया है। भाभी को रूठे देखने का स्वाद समाप्त हो गया।’’
मायारानी भी हँस पड़ी। माला के मुख पर न तो मुस्कराहट दिखाई दी, न ही उसके दाँत दिखाई दिए।
मोहिनी उठकर गई और आम के अचार का मसाला एक चीनी की प्लेट में रखकर ले आई। कुछ चीनी की प्लेटें भी लाई गईं। उनमें एक-एक मट्ठी रामदेई ने रख दी और फिर प्लेटें सबके सामने रख बोलीं, ‘‘लो मोहिनी! खाओ।’’
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