उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘मैं तो भाभी के साथ खाऊँगी।’’ मोहिनी ने अपनी प्लेट की मट्ठी माला के सामने रखी प्लेट में रखकर कहा, ‘‘आओ भाभी, खाएँ।’’
‘‘मुझको भूख नहीं है।’’ माला ने गम्भीर मुख बनाए ही कह दिया।
‘‘वाह! तो क्या हम भूखी बैठी थीं कि कब भाभी मट्ठियाँ लाएँ और हम अपना मुख खोलें।’’
‘‘दिखाई तो यही दिया है।’’ माला ने कहा और हाथ-पर-हाथ रखे बैठी रही।
‘‘नहीं भाभी!’’ मोहिनी ने हँसते हुए कहा, ‘‘ईश्वर की कृपा से अब तो भैया पाँच सौ रुपए की नौकरी पा गए हैं। वैसे तो पेट पहले भी भरा था। फिर भी भाभी जो कुछ भी लाएगी, वह हम खाएँगी ही खाएँगी, खाए पर भी खाएँगी।’’
मोहिनी ने ‘मट्ठी’ का एक टुकड़ा तोड़कर अचार से खाना आरम्भ कर दिया और कहा, ‘‘और भाभी! तुम भी खाओ। पेट भरा है तब भी खाओ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘भैया की नौकरी लगी है न। तुम को खुशी नहीं है क्या?’’
माला ने उत्तर नहीं दिया। मोहिनी, करीमा और रामदेई तीनों खाती रहीं।
मायारानी ने बात बदल दी। उसने कहा, ‘‘जानकी के दिन चढ़ गए हैं। परन्तु उसकी बड़ी बहन माला तो अभी वैसी ही बैठी है।’’
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