उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘मौसीजी!’’ करीमा ने कह दिया, ‘‘बहुत जल्दी है आपको दोहते-दोहतियाँ देखने की? भाभी को कुछ सुख तो भोगने दो।’’
‘‘तुम्हारे कितने बच्चे हैं?’’ मायारानी ने करीमा से पूछ लिया।
‘‘दो हैं, तीसरे की नींव रखी जा चुकी है।’’
‘‘क्या आयु है तुम्हारी?’’
‘‘उन्नीस की हो चुकी हूँ।’’
‘‘माला साढ़े उन्नीस की हो चुकी है। तुम्हारे हिसाब से इसके घर भी तीन बच्चे हो चुकने चाहिए थे।’’
‘‘सब उस परवरदिगार, करीम, रहीम की मेहरबानी पर ही है। भाभी! कुछ खुदा के नाम का दिया करो तो दो बच्चे एकदम भी हो सकते हैं।’’
‘‘यह तो बहुत ही मुसीबत होगी।’’
‘‘तो फिर धीरज से अपनी पारी की प्रतीक्षा करनी चाहिए।’’
नीचे बैठक में एक दूसरी ही बात हो रही थी। नूरुद्दीन ने प्रस्ताव रखा था–‘‘भगवान के नौकर होने की दावत दी जाए।’’
‘‘क्या होगा इससे?’’ भगवानदास का प्रश्न था।
‘‘होगा यह कि मुहल्ले में और उससे बाहर भी, लोगों में यह विख्यात हो जाएगा कि भगवान भापा एक बड़े डॉक्टर बन गए हैं। फिर भापा की प्रैक्टिस चलने लगेगी। भापा एक मोटर रखेंगे और कभी-कभी तो नूरे को भी मोटर की सवारी मिल जाएगी।’’
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