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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘यह सब व्यर्थ है। मैं यहाँ प्रैक्टिस चलाने के हक में नहीं हूँ। मेरा जीवन-कार्य अब निश्चित हो चुका है। मैं पढ़ाई कराऊँगा और नए-नए रोगो का कारण, उनका निदान और उनकी चिकित्सा ढूँढ़ूँगा।’’

‘‘और यह जो बोर्ड बाहर लगवाया है?’’

‘‘यह तो डाकिए को बताने के लिए है। बोर्ड चाचा ने बनवाकर लगवा दिया है। मैं समझा हूँ कि लगवाने का उद्देश्य इतना मात्र ही है?’’

‘‘मगर इस बोर्ड को पढ़कर, कोई रोगी आ गया तो क्या करोगे?’’

‘‘उसको देखूँगा और अपनी अक्ल के मुताबिक नुस्खा भी लिख दूँगा। मगर मैं प्रैक्टिस करने के हक में नहीं हूँ।’’

‘‘यदि दस-बीस रोगी रोज़ आने लगे तो?’’ नूरुद्दीन ने पूछ लिया।

‘‘तो अपनी फीस इतनी ज्यादा कर दूँगा कि वे आना छोड़ दें।’’

‘‘यही तो हम लोग चाहते हैं। फीस अधिक करने से तो लोग और भी अधिक संख्या में आएँगे।’’

‘‘क्यों, लोग अधिक धनी हो गए हैं क्या?’’

‘‘नहीं, यह बात नहीं है। बात यह है कि लोग मुख देखकर टीका लगवाते हैं। बड़े डॉक्टरों की बड़ी फीस होती है और बड़ी फीस वाले डॉक्टर बड़े होते हैं।’’

‘‘भापा! मैं यह बोर्ड उतरवा दूँगा। मुझको घर पर ‘प्रैक्टिस’ करनी मंजूर नहीं।’’

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