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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘तुम बोर्ड उतरवा दोगे तो मैं तुम्हारा नाम दीवार पर पेंट करवा दूँगा। फिर दीवार को कहाँ उठाकर ले जाओगे?’’ खुदाबख्श ने मुसकराकर कह दिया।

‘‘बहुत ज़बरदस्ती करोगे, चाचा!’’

‘‘तुम नई बीवी पाकर कुछ उल्टी बातें सोचने लगे हो।’’

‘‘इसमें तो कुछ भी उल्टा नहीं है। अपनी विद्या और अपनी ‘सर्विस’ की बात मैं जानता हूँ। जिस काम के लिए मैं नौकर हूँ, उसको करना अति आवश्यक है।’’

‘‘तो नौकरी छोड़ दो। उस नौकरी से लाभ ही क्या, जो किसी इनसान की तरक्की में बाधक बन जाए।’’

‘‘यह मेरी तरक्की में कैसे बाधा बनेगी?’’

‘‘पाँच सौ महीने से कितनी तरक्की करोगे इस जगह पर?’’

‘‘पंद्रह सौ महीने तक हो सकती है।’’

‘‘बस?’’

‘‘और क्या चाहिए, चाचा!’’

‘‘जानते हो मेरी आमदनी क्या है?’’ खुदाबख्श ने गम्भीर होकर पूछ लिया।

‘‘कितनी है?’’

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