उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘पिछले वर्ष का इन्कमटैक्स के लिए हिसाब बनाया है। दो लाख पाँच हज़ार रुपए का है। और भगवानजी महाराज! मेरे लिए काला अक्षर भैंस बराबर है। तुम तो सत्रह साल तक पढ़ते रहे हो। बाप के हज़ारों रुपए पढ़ाई पर खर्च कराए हैं।’’
खुदाबख्श की आय की बात सुन, लोकनाथ और भगवानदास चुप रह गए।
नूरुद्दीन ने कहा, ‘‘भैया भगवान! दावत तो होगी। इस मकान में होगी और दो-तीन दिन में होगी। तुम मानो, चाहे न मानो। तुम खर्च दो, चाहे न दो; दो सौ के लगभग मेहमान आएँगे और बाजे बजेंगे। मुजरा होगा और रात एक बजे तक ज़शन होगा।’’
‘‘कहाँ होगा? यहाँ इतनी जगह कहाँ है?’’
‘‘मैंने सब विचार कर लिया है। बाज़ार में तम्बू, कनात, दरी, कुर्सियाँ लगवा दूँगा। वहाँ पर आए हुए लोगों को बैठाऊँगा। इस कमरे में पचीस आदमी बैठकर आसानी से खा सकेंगे। जो आते जाएँगे, बैठते जाएँगे। किसी वक्त पचीस से अधिक हो गए तो वे बाहर बैठकर प्रतीक्षा करेंगे और मदारी का तमाशा देखेंगे। जो खाते जाएँगे, उनको मकान की सबसे ऊपर की छत पर बैठा दिया जाएगा और वहाँ गाना-बजाना और नाच-रंग होगा।’’
‘‘मतलब यह कि जो कुछ मेरे विवाह पर नहीं हुआ, वह मेरे इस नौकरी लगने पर होगा?’’
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