उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘मोहन के पिता ने कहा कि करने में कुछ हानि भी नहीं है। लोगों का भ्रम दूर हो जाएगा।’’
‘‘सुन्दरी भी क्या लोगों का भ्रम दूर कर रही है?’’
‘‘हाँ, पण्डित जी।’’
‘‘और मन से तुम अपने को हिन्दू कहती हो?’’
‘‘अनायास ही मेरे मुख से ‘राम-राम’ निकलता है। प्रत्येक शुक्रवार को गाँव का एक मुल्ला आता है और मुझे तथा इनको नमाज़ पढ़ना सिखाता है। मुझे वह बोलनी आती ही नहीं।’’
‘‘देखो सुन्दरी बेटी! तुम अभी भी हिन्दू ही हो। हिन्दू होने से पहले तुम एक मनुष्य थीं। अब सब लोग तुमको कह-कहकर मुसलमान बनाना चाहते हैं। मगर यह तुमको विचार करना है कि तुम्हें हिन्दू बने रहना है अथवा मुसलमान। मुसलमान बनने से कुछ लाभ और स्वाद तो है। इस पर भी यदि तुम चाहो तो हिन्दू बनी रह सकती हो।’’
‘‘निरंजन देव ने बातों में हस्तक्षेप करते हुआ कहा, ‘‘कैसे?’’
‘‘जैसे यह कि तुम धोती पहनो या तम्बा पहनो, तुम्हारे विचार करने की बात है। तुम आम खाओ अथवा खरबूजा खाओ, यह तुम्हारे सोचने की बात है। तुम बुर्का पहनो अथवा माथे पर तिलक लगाओ, यह किसी के कहने से नहीं, अपनी मर्ज़ी से है। इसी से हिन्दू या मुसलमान तुम्हारी मर्ज़ी से होगा।’’
‘‘मगर मेरे पिता ने, जब मैं हिन्दू था तो सुन्दरी को भटियारिन की लड़की समझ मेरे इससे विवाह करने पर मुझे घर से निकाल दिया था। जब से मैं मिर्ज़ा नूरुद्दीन हुआ हूँ, उन्होंने मुझसे सुलह कर ली है। अभी दो दिन हुए मेरे घरवाले सब लोग आए थे और दिन-भर हमारे यहाँ रह गए।’’
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