उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘वैसे वे अपने खाने-पीने के लिए सामान घर से ही लाए थे और हमसे पृथक् बैठकर खाना-पीना करते रहे। पिताजी तो मुझसे यह भी कहते थे कि वह मुझे अपनी जायदाद में से हिस्सा भी देंगे।’’
विभूतिचरण यह सुन-सुन उदास-सा हो रहा था। वह समझ रहा था कि यहाँ प्रश्न एक नूरुद्दीन तथा सुन्दरी का नहीं है। इनको तो समझाना सहज ही है। मगर सारी की सारी कौम को कैसे समझाया जाये? उसके लिए तो भगवान ही अवतार लेकर आएँ तो समझाया जा सकता है।
विभूतिचरण को गम्भीर विचार मग्न देख रामकृष्ण, जो खड़ा-खड़ा सबकी बातें सुन रहा था, कहने लगा, ‘‘पण्डित जी! यह तो नाम रखने की बात है। जिसे सब जो कुछ कहें वैसा ही अपने को समझना चाहिए। आपको सब पण्डित जी कहते हैं। मुझे भटियारा कहते हैं। जैसा सबको भाए वैसा ही तो होना है। मैं रामकृष्ण हूँ, आप विभूतिचरण हैं। यह क्यों? यह इसलिए ही न, क्योंकि सब आपको और मुझको ऐसा कहकर बुलाते हैं। हमें इन नामों पर बोलना पड़ता है।’’
विभूतिचरण इनको हिन्दू और मुसलमान दोनों समाजों से पृथक् होकर रहने को नहीं कर सका। उसने बात बदल दी। उसने पूछ लिया, ‘‘रामकृष्ण! काम-धन्धा कैसा चल रहा है?’’
‘‘पण्डित जी! आपकी कृपा से बहुत अच्छा है।’’
‘‘अच्छा। कल आगरा लिखत-पढ़त करने चले जाना। इस सराय के साथ यदि एक सुन्दर मन्दिर बन गया तो तुम्हारी सराय का काम और भी उन्नत होगा।
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