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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।

5

अगले दिन पण्डित जी सरकारी रथ पर सवार हो गाँव को जा रहा था तो रथवान ने पूछ लिया, ‘‘पण्डित जी! आपको शहंशाह बहुत मानते हैं। मैंने आगरे की सरायवाले से पूछा था कि आप कौन हैं? सरायवाले ने बताया था कि आप बहुत बड़े नज़ूमी हैं। कुछ मुझे भी बता दीजिए। जीवन-भर आपको याद रखूँगा।’’

विभूतिचरण ने ध्यान से रथवान के मुख पर देख पूछ लिया, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘रहीम।’’ रथवान ने उत्तर दिया।

‘‘मगर यह नाम असली नहीं है।’’

‘‘जी। मेरे माता-पिता ने मेरा नाम रामू रखा था।’’

‘‘देखो रामू! जब कोई मर जाता है तो रहीम अथवा रामू कहाँ होता है? एक लाश रह जाती है जिसे हिन्दू जला देते हैं और मुसलमान दफना देते हैं। लोग कहते हैं रामू को जला दिया गया अथवा रहीम को दफना दिया गया। मगर जो इसमें बोल रहा है, काम कर रहा है, वह न तो रहीम है और न रामू है। वह दफनाया नहीं गया और न ही जलाया जा सकता है। वह तो पहले ही चला जाता है।’’

‘‘हाँ, पण्डित जी! लोग कहते हैं कि वह रूह है। वह शरीर छोड़ जाती है।’’

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