उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘हाँ। तुम रूह हो। मैंने तुममें उसे देखा है। वह इस जिस्म में आने से पहले एक मथुरा के चौबे के शरीर में थी। तब उसने एक ब्राह्मणी विधवा को, जो तीर्थयात्रा करती हुई मथुरा आई थी, अपने घर में रख लिया था और उसे पत्नी बना लिया था। पहले उस औरत से चौबे ने बलात्कार किया था। पीछे उस औरत को नौकरानी के रूप में रखा। जब उसके बच्चा होने लगा तो उस औरत को घर से निकाल दिया था और वह वृन्दावन में वेश्यावृत्ति करने लगी। उस पाप-कर्म के फलस्वरूप तुम जब ग्यारह-बारह साल के थे तो तुम्हें एक राज्य के फीलवान ने पकड़ तुमसे अनाचार किया। तुमसे अपनी पत्नी की तरह व्यवहार किया। पीछे तुमको मुसलमान बना तुम्हें रथ हाँकने पर नौकर करवा दिया। अब तुम कठिनाई से सूखी रोटी खा पाते हो। तुम्हें पाँच रुपये महीना तनख्वाह मिलती है जिसमें तुम्हारा निर्वाह बहुत कठिनाई से होता है और अगले जन्म में भी तुम ऐसा कुछ बनोगे क्योंकि तुम्हारे कर्म ऐसे हैं।’’
रहीम रथवान काँप उठा। उसे फीलवान के साथ औरत का अभिनय करने के समय की बात स्मरण आ गई। अब वह शादीशुदा था और तब की और अब की अवस्था में अन्तर समझ ही वह काँप उठा था।
उसने परेशानी में पूछ लिया, ‘‘तो क्या यह मेरे मुख पर लिखा है?’’
‘‘नहीं। मुख पर तो मूँछें, दाढ़ी और सिर पर केश भरे पड़े हैं। मैं अपनी विद्या से तुम्हारी रूह को देख रहा हूँ। उस पर तुम्हारा भूत और भविष्य लिखा है।’’
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