उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
|
47 पाठक हैं |
प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘वह ब्राह्मणी जो पीछे वृन्दावन में वेश्यावृत्ति करती रही थी, जीवन भर तुम्हें बद्दुआएँ देती रही थी और उसकी बद्दुआ ही तुम्हें इस जीवन में ले आई है। उस ब्राह्मणी की रूह अभी भी तुम्हारे सिर पर मँडरा रही है और तुम्हें इस कष्ट में धकेलती ले जा रही है।’’
‘‘महाराज!’’ रथवान ने साहस कर कहा, ‘‘मुझे इस ज़िन्दगी में कष्ट तो बहुत है, मगर यह उस बात का फल है जिसे आप कह रहे हैं, मुझे स्मरण नहीं। न ही उस पर यकीन आ रहा है।’’
‘‘इस पर यकीन इस बात से आएगा कि मैंने तुम्हारे इस जीवन की भी बात तुम्हें बताई है। यह सत्य है तो पूर्व जन्म की बात भी सत्य होगी।’’
‘‘यह तो आपको किसी ने बता दिया होगा। कई लोग जानते हैं कि मैं फीलवान के साथ रहता था और वह मुझे मिठाई खिलाया करता था।’’
‘‘मगर मैं तुम्हारे इसी जीवन में होनेवाली एक घटना बताता हूँ। तुम्हारे घर में तीन सन्तान हैं। दो लड़के और एक लड़की है। दोनों लड़के अपनी माँ से नाराज़ हैं। वे एक दिन उसकी हत्या कर देंगे और तुम्हारी भी हत्या करने का भय दिखाकर तुम्हें चुप रखेंगे। तुम डर के मारे बताओगे नहीं कि वे माँ के हत्यारे हैं। इस पर भी तुम अत्यन्त दुःखी होगे और अपनी पत्नी की हत्या की बात किसी से नहीं बताओगे।’’
रथवान की आँखों में आँसू भर गए थे। उसने पण्डित जी को ओर दयनीय दृष्टि से देखकर कहा, ‘‘मुझे भी कुछ ऐसा ही समझ आ रहा है। मगर वह मेरी हत्या करने को कहते हैं।’’
‘‘नहीं। वह तुम्हारी हत्या नहीं करेंगे। वह अपनी माँ की ही हत्या करेंगे।’’
रथवान ने शेष मार्ग-भर और प्रश्न नहीं किया। वह अपने भूत और भविष्य के विषय में विचार करता रहा।
|