उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
पण्डित विभूतिचरण रामकृष्ण और निरंजन देव के वृत्तान्त पर विचार कर रहा था कि यह इन बेचारों का दोष नहीं है। वह तो पूर्ण जाति में प्रथा प्रचलित करनेवाले विद्वानों का दोष है।
भारत के मूल निवासी हिन्दू माने जाते थे। उनकी संख्या पूर्ण देश में तीस करोड़ के लगभग थी और मुसलमान आक्रमण करने वाले कुछ ही सहस्र यहाँ आए थे। यदि हिन्दू समाज में विवेक होता तो आक्रमण करने वालों का राज्य रहते हुए भी वे हिन्दू समाज में खप जाते।
वह नहीं जानता था कि जयपुर-नरेश की लड़की से विवाह की बात किसने चलाई थी। इस पर भी जब उसने अकबर के भाग्य में इस सम्बन्ध की सम्भावना देखी तो वह प्रसन्न था। वह समझ रहा था कि इस सम्बन्ध से जयपुर वाले आगरा के दरबार में प्रतिष्ठित हो सकेंगे और वह उसे हिन्दू राज्य में परिणत करने का यत्न करेंगे।
वह यह भी जानता था कि अकबर के मन में हिन्दू-मुसलमान का प्रश्न नहीं था। वह तो स्वयं शहंशाह अज़ीम मनना चाहता था और यदि राजपूत एक संघ बनाकर अकबर का पक्ष लेते तो निस्सन्देह अकबर का राज्य हिन्दू राज्य हो जाता। परन्तु यह नहीं हो सका। राजस्थान के नरेशों का संघ नहीं बन सका और कुछ रजवाड़े पृथक्-पृथक् अकबर को अपनी लड़कियाँ दे अपने मूल्य को कम कर रहे थे।
विभूतिचरण विचार कर रहा था कि यह सब पतन किस कारण हुआ है? उसको समझ आया कि देश, राष्ट्र और धर्म में सम्बन्ध-विच्छेद हो चुका है। धर्म का अर्थ तिलक छाप, धोती, कुर्ता, पूजा-पाठ रह गया है। इसके अर्थ वे सनातन धर्म नहीं रहे जिसमें धीः और विद्या भी आते हैं। बुद्धि से वे विचार ही नहीं कर सकते कि सत्य क्या है और असत्य क्या है।
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