उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
किसी ने कह दिया कि वे मुसलमान हैं। बस वे मान गए कि मुसलमान हैं। वह जानता था कि सुन्दरी और निरंजन देव को मृत्यु का भय था और यह भय निर्मूल था। इस पर भी यह था। परन्तु निरंजन देव के भाई-बन्धुओं को तो इनके मुसलमान हो जाने पर प्रसन्नता ही हुई प्रतीत होती थी। उसके मुसलमान होने से पहले तो निरंजन देव को घर से निकाल दिया था और मुसलमान होने के उपरान्त उससे मेल-मुलाकात उत्पन्न की जा रही थी।
वह हिन्दू समाज की इस बुद्धिविहीनता पर मन-ही-मन आँसू बहा रहा था। इन्हीं विचारों में लीन वह घर पहुँचा तो उसकी पत्नी रथ के द्वार पर आ खड़े होने का शब्द सुनकर द्वार खोलने चली आई।
पत्नी दुर्गावती ने द्वार खोल प्रणाम किया तो पण्डित जी ने उसे कहा, ‘‘एक रुपया इस रथवान को भोजनादि के लिए दे दो।’’
दुर्गा परेशानी में मुख देखने लगी। पति समझ कि घर पर इस समय एक रुपया भी नहीं है। उसने अपनी जेब में हाथ डाला। कुछ रेज़गारी, जो एक रुपये से कम ही थी, पण्डितजी ने बिना गिने रथवान को देते हुए कहा, ‘‘इससे पेट भर लो।’’
रथवान सुन और समझ रहा था। वह यह जानता था कि पण्डित जी को एक थैली, जो अच्छी भारी थी, शहंशाह के यहाँ से मिली थी। उसने वह थैली पण्डित जी को सराय में ले जाते देखा था। परन्तु वहाँ से आते समय उनके हाथ में वह नहीं थी और अब उनकी जेब में एक रुपये से कम रेज़गारी थी।
रथवान ने हाथ जोड़ दिए। उसने कहा, ‘‘महाराज! रहने दीजिए। मुझे आगरा से बाहर रथ ले जाने पर भत्ता मिलेगा।’’
विभूतिचरण ने मुस्कराते हुए पूछा, ‘‘क्या मिलेगा?’’
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