उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘आठ आने नित्य के हिसाब से। उसमें घोड़े को डालने का दाना और घास भी सम्मिलित है। सराय में मुझे और घोड़े को पेट भरने के लिए मिल गया था। घोड़े के लिए कुछ वहाँ से बचा साथ ले आया हूँ। वह यहाँ खिला चल दूँगा और सायंकाल तक आगरा पहुँच जाऊँगा।’’
‘‘अच्छा, ऐसा करो। तुम भोजन हमारे यहाँ ही कर लो। घोड़े के लिए घास तो यहाँ भी मिल जाएगी।’’
रथवान को यह स्वीकार था। इस कारण वह चुप रहा। पण्डित जी की पत्नी ने भीतर जा एक केले के पत्ते पर दो गेहूँ की रोटियाँ और ऊपर गाजर-मूली का साग रख ला दिया। रथवान ने तब तक घोड़ा खोल दिया था और उसके सामने घास डाल दी थी। स्वयं दुर्गावती पण्डिताइन से रोटियाँ ले वहीं ड्योढ़ी में बैठ वह खाने लगा।
पण्डित जी भीतर गए। स्नानादि से निवृत्त हो पूजा पर बैठ गए। इस सबमें दो घड़ी लगी। पण्डित जी भोजन के लिए भीतर रसोईघर में जाने लगे तो बाहर से रथवान ने आवाज़ दी, ‘‘पण्डित जी, मैं जा रहा हूँ।’’
पण्डित जी बाहर ड्योढ़ी में आ गए और रथवान के हाथ जोड़ने पर कहने लगे, ‘‘रहीम! अगर तुमको मेरे कहे पर यकीन है कि तुम्हारे साथ यह सब कुछ होनेवाला है तो तुम्हें मुझसे पूछना चाहिए था कि इसके प्रभाव को कम करने के लिए क्या करना चाहिए।’’
‘‘तो पण्डित जी! यह किस्मत की बात, मेरा मतलब है कि बुरे अमालों की बात टल भी सकती है?’’
‘‘इनकी तेज़ी तो कम हो ही सकती है। अगर सच्चे दिल से उपाय किया जाए तो बिल्कुल भी टल सकती है।’’
अब रहीम ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘तो पण्डित जी! आपके कथन की सच्चाई का पता कैसे चलेगा?’’
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