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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘‘हाँ। यह भी ठीक है। अगर तुम्हें अभी मेरे कहने पर शक है तो पहले इसकी परीक्षा कर लो। अच्छा, अब तुमने इस गरीब ब्राह्मण का घर देख लिया है। कभी ज़रूरत समझ आए तो आ जाना।’’

अब पण्डित जी ने भी हाथ खड़ा कर आशीर्वाद दिया, ‘‘भगवान तुम्हारी रक्षा करे।’’

पण्डित जी रसोईघर में पहुँचे और खाने की चौकी पर बैठ गए। पण्डिताइन सामने बैठी थी। पण्डित जी ने बैठते ही पूछा, ‘‘राम और रवि कहाँ हैं?’’

‘‘दोनों अपने साथियों के साथ चले गए हैं। इन्हें अब एक शौक सवार हो रहा है।’’

‘‘क्या?’’

‘‘ताश खेलते हैं। पड़ोस के लाला श्यामबिहारी का लड़का विपिनबिहारी कुछ दिन हुए, आगरा गया था और वहाँ से यह खेल खरीद लाया है। वहीं दोनों गए हैं।’’

‘‘और पढ़ाई-लिखाई?’’

‘‘वह तो प्रातः कर गए हैं। कहते थे कि लिखने का काम सायंकाल करेंगे।’’

‘‘और सरस्वती कहाँ है?’’ पण्डित जी ने लड़की के विषय में पूछा।

‘‘गाय को तनिक गाँव में चराने ले गई है।’’

‘‘अब उसमें कुमारी के लक्षण दिखाई देने लगे हैं। यह काम किसी लड़के को करने के लिए कहा करो।’’

‘‘पण्डित जी! यदि कुछ नकद भी यजमानों से लेना आरम्भ कर दें तो एक नौकर इस काम के लिए रखा जा सकता है।’’

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