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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘‘अच्छा। विचार करूँगा। कितना कुछ देना पड़ेगा। इस सेवा के लिए?’’

‘‘झींगुर का लड़का सेहतू कल आया था। वह पहले भी कभी-कभी आया करता है और खाना यहाँ खाया करता है। मैंने उसे कहा था कि हमारी गाय चरा लाया करो।’’

‘‘वह तैयार था। परन्तु मैं समझती हूँ कि बिना कुछ दिये किसी से काम नहीं लेना चाहिए। इस कारण आपसे पूछने का विचार कर चुप रही।’’

‘‘देखो भाग्यवान! उसे अभी दो रुपये महीना और मध्याह्न का भोजन दे दिया करो। पीछे काम देखकर और अधिक भी दे सकूँगा।’’

पण्डित जी किसी से कुछ माँगते नहीं थे। गाँव के लोग स्वतः अन्न-अनाज, वस्त्रादि दे जाया करते थे। इससे निर्वाह हो रहा था। कभी किसी के घर में कोई शुभ संस्कार हुआ तो एक अथवा सवा रुपया मिल जाया करता था। वैसे नकद दान-दक्षिणा लेने का पण्डित का न स्वभाव था और न ही लोगों के पास कुछ होता था।

पण्डित जी के पड़ोस में एक बहुत बड़ी हवेली में एक श्यामबिहारी लाला रहता था। वह आढ़त का काम करता था। गाँव की भूमि की उपज तथा गाँव के जुलाहों से बना कपड़ा आगरा में बेचने के लिए भेजता था और वहाँ से गाँव वालों की आवश्यकता की वस्तुएँ लाकर गाँववालों को दिया करता था।

श्यामबिहारी का लड़का विपिनबिहारी पण्डित जी से देवनागरी और कुछ शास्त्र पढ़ने आया करता था। पण्डित जी ने उसे सुलेख लिखने का अभ्यास कराया था और वह तथा पण्डित जी के दोनों लड़के राम और रवि भी बहुत सुन्दर लिखते थे। तीनों लड़के पण्डित जी घर पर रखी पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ तैयार किया करते थे। यही लिखने का काम था जो दुर्गा ने अपने पति को लड़कों के सायंकाल करने का बताया था।

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