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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


पण्डित जी ने भोजन के उपरान्त शयनागार में जा आराम करना चाहा तो दुर्गा ने पूछा, ‘‘यह शहंशाह आपके पीछे इतना पड़ा रहता है, परन्तु कुछ देता-दिवाता तो है नहीं।’’

‘‘देता रहता है। उसकी कमाई महान् पाप से तर-बतर रहती है। इस कारण उसमें से यहाँ कुछ लाना मैं ठीक नहीं समझता। पहले तो मैं उसे हाथ लगाता ही नहीं था। मेरा मतलब है कि लेता ही नहीं था। यदि किसी प्रकार शहंशाह देते हैं तो मैं वहीं सब धन बाँटकर घर आता हूँ। वह खून और पाप से रंगा धन मैं यहाँ लाना नहीं चाहता। इस बार भी एक थैली में बहुत-सी अशरफियाँ थीं। अनुमान है कि कम-से-कम पाँच सौ होंगी। वह मैं भटियारिन की सराय पर बन रहे मन्दिर में लगाने के लिए दे आया हूँ। पापी के पाप का धन भगवान के चरणों में पहुँच पवित्र हो जाएगा।’’

‘‘यह तो ठीक है। परन्तु लड़की सज्ञान हो रही है। उसको विदा करने के लिए भी तो कुछ चाहिए।’’

‘‘अभी वह नौ वर्ष की है। मैं उसका विवाह पन्द्रह वर्ष की होने पर करूँगा। इसमें अभी बहुत काल है। तब तक भगवान किसी की नेक कमाई का कुछ भाग दिला देगा और उसके हाथ में मेहँदी से रच दूँगा।’’

‘‘मगर मैंने तो उसके लिए एक लड़का अभी देखा है।’’

‘‘कौन है?’’

‘‘गाँव के पुरोहित ऊधवराम का लड़का है। दस-ग्यारह वर्ष का है और बहुत ही प्यारा लगता है।’’

‘‘वह बहुत छोटा है। लड़की उससे पहले ही युवा हो जाएगी। मैं इसके लिए अब दृष्टि दौड़ाऊँगी और पता करूँगा। हो जाएगा। अभी बहुत समय है।’’

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