उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘मैं उसके रजस्वला होने से पहले ही उसे विदा करना चाहती हूँ।’’
‘‘क्या रजस्वला होने पर कुछ इतना खाने-पीने लगेगी कि घर का कोठार खाली हो जाएगा?’’
‘‘नही। यह बात नहीं। ऊधवराम की पत्नी कह रही थी कि शास्त्र में लिखा है कि लड़की को रजस्वला पति के घर में जाकर होना चाहिए।’’
‘‘इसीलिए तो तुमको कहा करता हूँ कि कुछ पढा-लिखा करो जिससे तुम्हें पता चले कि शास्त्र में क्या लिखा है।’’
‘‘क्या लिखा है?’’
‘‘यही कि लड़की सामान्य रूप में रजस्वला तेरह वर्ष की वयस् में होती है और उसका विवाह पन्द्रह वर्ष के उपरान्त करना चाहिए। दो-ढाई वर्ष उसे यौवन प्राप्त करने में लगते हैं।’’
‘‘तो ऊधवराम की पत्नी गलत कहती थी? वह तो कहती थी कि कुमारी लड़की को रजस्वला होते माता-पिता देखें तो वे घोर नरक में जाते हैं।’’
‘‘और मैं तुमसे कहता हूँ कि वह मूर्ख पण्डित घोर नरक में जानेवाला है। वह म्लेच्छ तो मन्त्रोच्चारण भी अशुद्ध करता है। उसका लड़का भी विष्णु-सहस्र नाम पढ़कर अपने को पढ़-लिख गया समझने लगा है। सरस्वती उसके घर में नहीं जाएगी।’’
‘‘न सही। पर उसका घर में अचार भी तो नहीं डालना।’’
‘‘नहीं श्रीमती जी! अचार नहीं, मुरब्बा। और वह भी बहुत स्वादिष्ट बनेगा। जिसके घर जाएगी वह उसका धन्यवाद करेगा और उसके माता-पिता का जीवन-भर आभारी रहेगा।’’
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